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मेरी उम्र आज 53 वर्ष है, लेकिन संगीत से मेरा रिश्ता बचपन से ही शुरू हो गया था। बहुत छोटी उम्र में ही मुझे सुरों की दुनिया ने आकर्षित किया और समय के साथ-साथ मेरी रुचि संगीत में गहराती गई। संगीत केवल एक शौक नहीं रहा, बल्कि मेरी पहचान, मेरी आत्मा बन गया।
जब मैं कॉलेज में था, तब "युवा उत्सव" जैसे आयोजनों के लिए छात्रों को प्रतियोगिताओं में भाग लेने हेतु तैयार करता था। मेरी मेहनत रंग लाती थी — छात्र इन प्रतियोगिताओं में पुरस्कार जीतते, और वह जीत मेरी आत्मा को संतोष देती थी। कॉलेज का स्टाफ, प्राचार्य — सभी मेरे कार्य को सराहते और आज भी वह सम्मान बरकरार है। जिनसे मैंने सीखा, उनके चरण छुए और जिनको मैंने सिखाया, उन्होंने स्नेहपूर्वक मेरे चरण छुए। यह मेरे लिए केवल परंपरा नहीं, बल्कि एक रिश्ते की परिभाषा थी।
डॉक्टर, इंजीनियर, सीए जैसे प्रतिष्ठित लोग भी मुझसे संगीत सीखते हैं। जब वे सम्मानपूर्वक मिलते हैं, चरण छूते हैं — तब मुझे महसूस होता है कि मैंने कुछ ऐसा किया है जो लोगों के दिलों को छू गया है।
जब मैं अपनी नई सोसाइटी में रहने आया और वहाँ दुर्गा पूजा के अवसर पर एक संगीत प्रस्तुति दी, तो लोगों ने मुझे तुरंत पहचान लिया। ऐसा लगने लगा कि लोग सोसाइटी के प्रेसिडेंट को भले न जानते हों, लेकिन मुझे ज़रूर जानते हैं। इससे कोई अहंकार नहीं आता, बस एक आत्मिक संतोष होता है कि लोग आपको आपके हुनर से पहचानते हैं — न कि पद या पैसे से।
मैं खुद को हमेशा से ही एक खुशकिस्मत व्यक्ति मानता हूँ कि मुझे संगीत जैसे जीवनदायिनी कला का साथ मिला। लेकिन जब मैंने स्कूल में एक संगीत शिक्षक के रूप में काम शुरू किया, तो जो अनुभव मुझे वहाँ मिला, उसने मेरे अंदर एक गहरी सोच को जन्म दिया।
स्कूलों में विषयों के बीच भेदभाव: मेरे अनुभव
कई छोटे-छोटे कारण हैं, जिनसे मुझे यह महसूस हुआ कि स्कूलों में विषयों के बीच भेदभाव होता है।
एक बार मेरी कक्षा में एक बच्चा पाँच मिनट देर से पहुँचा। मैंने उससे पूछा, "क्यों लेट आया?" उसने जवाब दिया, "मैम ने रोक लिया था, कुछ काम करने को बोला था।" मैंने उससे कहा, "कोई बात नहीं, बैठो। अगर कुछ नोट्स छूट गए हैं तो किसी सहपाठी से देखकर पूरा कर लेना।"
क्योंकि मेरा मानना यह है कि अगर बच्चा ईमानदारी से किसी और शिक्षक की कक्षा में था, तो वह कोई गलती नहीं है। उसे सजा नहीं, सहयोग मिलना चाहिए।
लेकिन यही स्थिति जब उलटी हो जाती है — यानी मेरी कक्षा से कोई बच्चा पाँच मिनट लेट हो जाए और अगली कक्षा गणित या विज्ञान की हो — तो वही बच्चा डांट खाता है, उसका मज़ाक उड़ाया जाता है, और कई बार तो पूरे क्लास के सामने अपमानित भी कर दिया जाता है।
यहाँ तक कि कई बार उस बच्चे को कक्षा में प्रवेश ही नहीं करने दिया जाता, जिससे उसका पूरा पीरियड बर्बाद हो जाता है — और वह न कुछ पढ़ पाता है, न समझ पाता है।
उसे यह कह दिया जाता है:
"तू तो हर वक्त गाने-बजाने में ही लगा रहता है, पढ़ाई भी करेगा या नहीं?"
यह समस्या विषय की नहीं, ‘अहं’ की है
मेरे अनुभव में यह केवल विषयों का भेदभाव नहीं, बल्कि कई बार यह शिक्षकों के 'Ego' यानी अहं का भी विषय बन जाता है। शिक्षक यह नहीं सोचते कि बच्चा पढ़ाई छोड़कर नहीं गया था, वह किसी और शिक्षक की क्लास में था। एक जिम्मेदार शिक्षक होने के नाते, हमारा कर्तव्य बनता है कि हम बच्चे को सहयोग करें, न कि उसकी गलती तलाशें।
अगर एक शिक्षक मददगार रवैया रखता है और दूसरा केवल अनुशासन के नाम पर कठोरता दिखाता है, तो इसका असर केवल बच्चे की मानसिकता पर नहीं, उसकी रचनात्मकता और आत्मविश्वास पर भी पड़ता है।
संगीत शिक्षक भी शिक्षक हैं, उन्हें समान दृष्टि से देखें
मैंने यह भी देखा है कि स्कूलों में संगीत शिक्षकों को दूसरे विषयों के शिक्षकों की तुलना में कम महत्व दिया जाता है। यह कोशिश मेरे साथ भी हुई — मुझे स्टाफ मीटिंग, शैक्षणिक योजनाओं या किसी निर्णय प्रक्रिया से बाहर रखने का प्रयास किया गया — मानो मैं केवल एक "आउटसाइडर" हूँ।
लेकिन मैंने कभी अपने सम्मान से समझौता नहीं किया। मैंने हमेशा अपनी जगह और पहचान बनाए रखी। मैंने यह स्पष्ट कर दिया कि एक संगीत शिक्षक भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कोई अन्य विषय शिक्षक। यह आसान नहीं था, लेकिन संभव था — कैसे मैंने अपना सम्मान बनाए रखा, यह मैं अगले भाग में विस्तार से बताऊंगा।
लेकिन यही संगीत शिक्षक जब सालाना कार्यक्रम में मंच सजाते हैं, बच्चों को तैयार करते हैं, और स्कूल का नाम रोशन करते हैं — तब सभी को उनकी याद आती है।
तो फिर सवाल उठता है — क्या संगीत शिक्षक सिर्फ समारोहों तक सीमित हैं? क्या उनका योगदान केवल ‘मनोरंजन’ है?
बच्चों को भी मिलता है गलत संदेश
जब हम बच्चों को यह संदेश देते हैं कि संगीत या कला कोई ‘सीरियस’ विषय नहीं है, तो हम उनकी रचनात्मक सोच को दबा रहे होते हैं। वे डरने लगते हैं कि अगर उन्होंने संगीत में आगे बढ़ने की कोशिश की, तो शायद उन्हें सामाजिक स्वीकार्यता नहीं मिलेगी।
मेरा मानना है कि अगर बच्चा गणित में अच्छा है, तो उसे बढ़ावा दिया जाना चाहिए। लेकिन अगर वही बच्चा तबला, गिटार या गायन में माहिर है, तो उसका भी उतना ही उत्साहवर्धन किया जाना चाहिए।
निष्कर्ष: बदलाव की शुरुआत हमें ही करनी होगी
मुझे गर्व है कि मैं एक संगीत शिक्षक हूँ। मैंने अपने जीवन में जो सम्मान कमाया है, वह सुरों की बदौलत है। पर जब मैं स्कूल के वातावरण को देखता हूँ, तो मन कहीं न कहीं दुखी होता है।
हमें जरूरत है स्कूलों की उस मानसिकता को बदलने की, जहाँ विषयों के आधार पर शिक्षकों और छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है। जब तक हम संगीत और कला को केवल “सपोर्टिंग सब्जेक्ट” मानते रहेंगे, तब तक हम बच्चों की सोच को सीमित करते रहेंगे।
बदलाव की शुरुआत हम जैसे शिक्षकों से होगी, जो हर बच्चे की प्रतिभा को पहचानते हैं — चाहे वह किसी भी विषय में क्यों न हो।
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