क्यों भारत के स्कूलों में संगीत को नजरअंदाज किया जाता है?
भारत एक ऐसा देश है जिसकी संस्कृति, परंपरा और इतिहास संगीत और कला में डूबा हुआ है। सदियों से संगीत हमारे जीवन का हिस्सा रहा है – चाहे वह शास्त्रीय संगीत हो, लोकगीत हों या भक्ति संगीत। इसके बावजूद, आज हमारे स्कूलों में संगीत और कला को वह स्थान नहीं दिया जाता, जो गणित, विज्ञान या अंग्रेजी जैसे विषयों को मिलता है। आखिर क्यों? क्या वाकई यह सोच सही है कि संगीत केवल “शौक” तक सीमित है और इसका जीवन में कोई बड़ा योगदान नहीं? इस सवाल का जवाब तलाशना आज बेहद जरूरी है।
1. माता-पिता की मानसिकता: “थोड़ा पढ़ भी लिया कर”
अक्सर बच्चों को यह कहते हुए सुना जाता है – “सारा दिन यही करेगा? थोड़ा पढ़ भी लिया कर।” यह सोच माता-पिता में बचपन से ही गहराई तक बैठी होती है कि अगर बच्चा पढ़ाई में अच्छा नहीं है, तो उसका भविष्य अंधकारमय है। संगीत, चित्रकला या नृत्य जैसे विषयों को वह केवल टाइमपास मानते हैं।
कई बार माता-पिता इस हद तक चले जाते हैं कि अपने ही बच्चे का मजाक बना देते हैं – “ये तो बस गाने-बजाने में ही लगा रहता है। भांड बनेगा क्या?” ऐसे शब्द बच्चों के आत्मविश्वास को गहरी चोट पहुंचाते हैं। धीरे-धीरे बच्चा भी यह मान लेता है कि संगीत या कला केवल “मजाक” है और करियर बनाने के लिए पढ़ाई ही एकमात्र रास्ता है।
2. स्कूलों का रवैया: “संगीत में देर क्यों हुई?”
यह केवल घर की बात नहीं है। स्कूलों में भी यही माहौल देखने को मिलता है। एक बच्चा अगर संगीत की कक्षा में थोड़ी देर रुक जाए और अगले पीरियड में 5 मिनट लेट हो जाए तो उसे डांट पड़ती है। कई बार तो उसे क्लास के सामने अपमानित किया जाता है – “तू तो बस गाने-बजाने में ही लगा रह, पढ़ाई-लिखाई तुझसे होगी नहीं।”
यह दोहरा मापदंड है। एक ओर विज्ञान या गणित में औसत अंक लाने पर भी बच्चे को “मेहनत करो” कहकर प्रोत्साहित किया जाता है, लेकिन संगीत में रुचि लेने पर उसे तुरंत यह कहकर हतोत्साहित किया जाता है कि इसका कोई भविष्य नहीं है।
3. समाज की सोच: “कला का क्या करोगे?”
हमारे समाज में यह धारणा गहराई से बैठी है कि डॉक्टर, इंजीनियर, वकील या सरकारी कर्मचारी बनना ही सफलता का पैमाना है। कलाकारों को गंभीरता से नहीं लिया जाता। यही सोच स्कूल और माता-पिता की मानसिकता में झलकती है।
क्या हम भूल गए हैं कि एक कलाकार समाज का आईना होता है? वही हमारे दुख-सुख, हमारी भावनाओं और हमारी कहानियों को सुरों, रंगों और शब्दों में ढालता है।
4. संतुलन क्यों जरूरी है?
जीवन में केवल अकादमिक ज्ञान ही सब कुछ नहीं है। कला और संगीत वह माध्यम हैं जो बच्चे के भीतर संवेदनशीलता, रचनात्मकता और आत्म-अभिव्यक्ति को जन्म देते हैं। एक बच्चा जो संगीत सीखता है, उसमें धैर्य, अनुशासन और टीमवर्क जैसी खूबियां विकसित होती हैं।
संगीत और कला मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी वरदान हैं। यह तनाव को कम करते हैं और जीवन में संतुलन बनाए रखते हैं।
5. बदलाव की जरूरत
जरूरत इस बात की है कि हम माता-पिता और शिक्षक मिलकर यह समझें कि हर बच्चे का अपना एक हुनर और रुचि होती है। हमें उन्हें हर क्षेत्र में आगे बढ़ने का मौका देना चाहिए – चाहे वह विज्ञान हो या संगीत।
स्कूलों को चाहिए कि वे संगीत और कला को “अतिरिक्त गतिविधि” के बजाय मुख्यधारा के विषयों में शामिल करें। माता-पिता को भी अपने शब्दों और रवैये में बदलाव लाना होगा। बच्चों का मजाक उड़ाने के बजाय उन्हें प्रोत्साहित करना होगा।
निष्कर्ष
संगीत और कला कोई “कमतर” विषय नहीं हैं। ये जीवन को सुंदर और सार्थक बनाते हैं। अगर हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे एक संतुलित, रचनात्मक और संवेदनशील इंसान बनें तो हमें उन्हें कला और संगीत के लिए भी उतना ही प्रोत्साहित करना होगा जितना हम विज्ञान और गणित के लिए करते हैं।
आइए, इस सोच को बदलने की शुरुआत हम अपने घर और स्कूल से करें। हो सकता है, आज का यह कदम कल किसी बच्चे को एक महान कलाकार बनने का रास्ता दिखा दे।
क्या आप चाहेंगे कि मैं इस ब्लॉग का अगला हिस्सा भी लिखूँ जिसमें “कला और संगीत से जुड़े करियर विकल्पों” पर बात करें ताकि माता-पिता को भी समझ आए कि इसका भविष्य कितना उज्ज्वल है?
या चाहेंगे कि अगले ब्लॉग में स्कूलों में संगीत शिक्षा को मजबूत करने के उपाय लिखूं?